मैं आकर्षित हूँ तुम्हारी तरफ,
तुमसे बोलना चाहती हूँ,
तुम्हे छूना चाहती हूँ,
तुम्हारे साथ हँसना चाहती हूँ,
संग तुम्हारे रोना चाहती हूँ,
हाँ मैं आकर्षित हूँ तुम्हारी तरफ।।
ऐसा नहीं कोई आया नही,
साथ ख्वाहिशें लाया नही।
सभी मुझसे मिलना चाहते है,
सभी मुझे छूना चाहते है।
मुझसे प्यार भी करते है,
ऐसा तो सभी कहते है।
मैं खुश हो जाती हूँ,
और करीब आ जाती हूँ,
मैं तुम्हारी तरफ आकर्षित हो जाती हूँ।
पर अब कुछ ठीक नही लग रहा,
कुछ अजीब है,
मैं तो पिता की तरह तुम्हे चाह रही थी,
मन ही मन तुम्हे और पा रही थी।
तुम्हे भाई कह कर हाथ पकड़ रही थी,
तुम्हे अपना समझ कर बहुत अकड़ रही थी।
मैं पत्नी बन तुम्हें पति मान रही थी,
तुम्हारी जीवन संगिनी से खुद को पहचान रही थी।
पर करीब आकर देखा तो,
तुम्हारी आँखों में कुछ और भाव था।
वो स्नेह वो ख़ुशी मिटने लगी थी,
लोलुपता और वासना अचानक से दिखने लगी थी।
एक अजीब स्तिथी में आ चुकी थी,
अपने आप में से कहीं जा चुकी थी।
मेरा इंकार मुझे तन्हा सरेआम करता है,
मेरा इकरार मुझे यहाँ बदनाम करता है।।
क्या इसमें मेरी ग़लती है,
तुममें वासना की अग्नि जलती है।
क्या इसमें दोष मेरा है,
तुम्हे जड़ मानसिकता ने घेरा है।
तुममें तो मुझे हर रिश्ता दिखाई देता है,
पर मुझमे सिर्फ तुम्हे वही दिखाई देता है।
जवाब दो मैं इंतज़ार करती हूँ,
विनम्र आग्रह फिर एक बार करती हूँ।
हाँ मैं आकर्षित हूँ तुम्हारी तरफ,
तुमसे पूछना चाहती हूँ,
तुम्हे प्यार करना चाहती हूँ।।
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