Monday, 2 November 2015

आज़ाद पंछी

मैं आज़ाद पंछी,
दो डाल का निवासी हूँ।
एक डाल मस्जिद में पड़ती,
तो दूजे मैं  काशी हूँ।

पलक झपकते ही उड़ जाऊँ,
 एक डाल से एक डाल।
फ़िक्र नही कल आज की,
बीते महीने साल।

आसमान में गोते लगाते,
नज़र पड़े जब इस धरा पे।
एक अजब चित्र दिख जाता,
जो मेरे मन को चुभ जाता।

इस सुन्दर धरती पर,
एक रेखा लम्बी-सी खिंची हुई।
देखे कोई, तो लगे है ऐसे,
जैसे दो टुकड़ों में बँटी हुई।

जो इस पार वो इस पार,
जो उस पार वो उस पार।
लांघ न पाये बड़े-बड़े भी,
दिल की ये ऊँची दीवार।

पर न रुकता मैं कभी भी,
और न ही कोई रोक पाता है।
मज़ा तो खुल के जीने में है,
बंद पिंजरे में कौन उड़ पाता है।

न रुकी हवा न रुके परिंदे,
तुम्हारी इस दीवार से।
पता नहीं न जाने तुम,
क्यों घबराते प्यार से ?

एक बार दीवार गिराकर देखो,
दिल में प्यार जगाकर देखो।
सुकूँ की नींद तुम सो पाओगे,
वरना लड़ते-लड़ते मर जाओगे।। 

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