Friday, 5 October 2018

एक बाग़ है

आहिस्ता आहिस्ता रिस रहा हूँ मैं
अपनी हथेली की क़ैद से,
रेत बन चुके है सब ख़्याल मेरे
और मैं उन्हें अब रिहा कर रहा हूँ।
जब तक थे यहाँ खूबसूरत बाग
सभी यहाँ रुकने आते थे
कुछ पल साथ बिताते थे,
बहुत ही खुशनुमा सा समां रहता था।

फिर न जाने कहाँ से वो बादल आये
जो बारिश का सपना दिखा रहे थे,
मगर उसमें सिर्फ़ बिजलियाँ ही कड़कती थी।
पर ये बाग़ उसी खुशी के साथ
उसके इंतेज़ार में न जाने कितने ही सावन
खड़ा रहा।
मगर वो बादल कुछ और ही मंसूबे लिए
उसे देख रहा था,
वो कही और ही बरसने का मन बना चुका था
फिर भी इस बाग को सुखाने में लगा हुआ था।
और इस तरह उसके मंसूबों से बेख़बर
ये बाग उसके बरसने के इंतेज़ार में
सूखता चला गया।
वो बादल आज भी वहीं बिजलियाँ कडकड़ाता है
पर हर बार कहीं और ही बरसने निकल जाता है।

अब यहाँ सिर्फ़ रेत ही और बची है
आहिस्ता आहिस्ता मेरी हथेली की कैद से
वो भी रिस रही है।
उस बादल के मोह से निकल वो
चल पड़ा फिर से अपने
बाग को वही पुरानी रवानगी देने।
अब पूरा भरोसा है कि वो बहार लाएगा
इसिलए नही कि अब नए बादल की आस है
पर अब उसने जान लिया कि बहार
बादलों की मोहताज नही होती।।